Thursday, 5 June 2008
ट्यूलिप...
झुर्री भरे हाथों में
हर वक्त थमी रहती थी
एक खुर्पी
तपे संवलाये शरीर पर
मेहनत की बूंदें
छहराती रहती
उसे रंगों की लत थी
सुबह, दोपहर, शाम की फिक्र
फिर कैसे रहती
उस बूढ़े बागवान की
मानों अब हथेली पर ट्यूलिप
उगाने की हसरत बची थी
अब तक वो गिन कर बीज बोता
और, उसी वक्त फूलों की
गिनती भी कर लेता
पर इस बार जाने क्या हुआ
उसके बोए बीस बीजों में
एक बीज का अंकुर नहीं फूटा
उन्नीस पौधे लहलहाते रहे
बागवान मुरझाता गया
फिर एक दिन
जीवन को कह गया
अलविदा
कुछ रोज बाद
ट्यूलिप की क्यारी के पास
ग्लाइडोलस के पौधों के बीच
सबसे पहले खिला
छिटक कर गिरा बीसवां
ट्यूलिप का बीज
भोर का रंग लिए
बिलकुल नारंगी,
कोमल मखमली।
लेकिन, बागवान इसे
निहार नहीं सका
क्योंकि मेहनतकश ने की थी
खुद के श्रम की अनदेखी।
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4 comments:
बहुत अच्छा लिखते हैं संदीप जी। यह पोस्ट भी सुपठनीय है।
मर्मस्पर्शी रचना.
उन्नीस पौधे लहलहाते रहे
बागवान मुरझाता गया
फिर एक दिन
जीवन को कह गया
अलविदा
-बहुत उम्दा.
संदीप भाई, इतनी सुंदर पंक्तियों की वाहवाही के लिए उतनी ही सुंदर टिप्पणी होनी चाहिए...
पर अफ़सोस...! ज़्यादा शब्द सूझ नहीं रहे, जल्दबाज़ी भी है... इसलिए केवल "बहुत सुंदर" कहने की ही गुस्ताख़ी कर रहा हूँ...
pehli baar aapka blog dekha hai...photos bahut sunder or dil ko chhu jane wale hain.....
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