Monday 23 June, 2008

प्यार अंधा होता है, माया भी यही कहती है....



समानांतर चीजों में भी विरोधाभास होता है...गज़ब का विरोधाभास, कहने को तो वो एक पुल के दो सिरे हैं। एक सिरा मुंबई के भायखला इलाके में खुलता है तो दूसरा सात रास्ता चौराहा से पहले पड़ने वाले एक और चौराहे से जुड़ जाता है।

एस ब्रिज (S).. जी हां अब इसी नाम से जाना जाता है वो पुल। जिसके दोनों सिरों के अलावा ऊपर से गुजरती सड़क के समानान्तर छोर पर बने फुटपाथ भी हमशक्ल ही नज़र आते हैं....बस अंतर है तो यही कि फुटपाथ के एक सिरे पर थम चुकी हैं प्यार के नाम कुर्बान जिंदगियां।

.......माया, यही नाम बताया फुटपाथ पर उगी दिखने वाली उस स्थूल काया की गौर वर्ण महिला ने।

एस ब्रिज से गुजरते वक्त वैसे तो किसी के भी कदम अकसर दिखने वाले एक दृश्य को देखकर थम जाते हैं....दुधमुहे बच्चों के हाथ में बंधी रस्सी का एक सिरा जब फुटपाथ की रेलिंग में गड़ी किसी बड़ी सी कील से जुड़ा हो तो एकबारगी किसी के भी दिमाग को हथौड़े की चोट तो लगेगी ही। दरअसल माया की माने तो ये बच्चे उसी के ही हैं।

इन बच्चों के पास ही फुटपाथ पड़ी दिख जाती है वो मैली कुचैली लड़की जो अभी कुछ महीनों पहले तक अपने पैरों पर भागती फिरती थी, जाने क्या हुआ उसे मानों दीमकों ने भीतर से खोखला कर डाला। हाथ पांवों की उभरी नसें बिलकुल दीमक की बांबियां नज़र आने लगीं, कुछ दिनों पहले तक वो कूड़ा-कचरा बीनने वाले लोगों के साथ उसी फुटपाथ पर सुट्टा मारते, ताश की पत्तियां फेंटती रहती थी लेकिन अब शरीर हांड़ मांस का पुतला भर रह गया।

भरे पूरे परिवार के साथ उसी फुटपाथ पर बस दो फिट की दूरी पर रहने वाली माया बताती है कि ये पुतला कुछ महीने पहले ममता का बोझ भी ढो चुका है। बाद में आखिर ऐसा कौन सा रोग लगा कि उसकी देह में इतनी भी कूबत नहीं बची कि वो अपने पैरों पर खुद के शरीर का भार ढो सके। माया भी अब उससे पूरी तरह उदासीन है कहती है, ‘जब मरद को ही उसकी फिकर नहीं रही तो और कोई क्या करेगा।’


वैसे भी मुंबई की रफ्तार ही कुछ ऐसी है कि यहां लोगों को खुद की पीर भी जल्द ही जब्त करनी होती है, फिर पीर पराई लोग यहां क्या जाने....।

दो सालों से ऊपर हुए पुल के इस फुटपाथ को माया का आशियाना बने। एस ब्रिज का भायखला इलाके के जुड़ने वाला छोर अब तो माया की रोजमर्रा से जुड़ी अनुपस्थिति में भी सूना सा नज़र आने लगता है। क्योंकि यहां महज माया ही नहीं, यहां हैं उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे और जीवन संघर्ष के बोझ तले दबा उसका मरियल पति....सलीम।

फुटपाथ के इस आशियाने में न तो सिर पर छत है न ही जमाने की नज़रों से बचने के लिए दरो-दीवार की बंदिशें। महीना गर्मी का हो तो तन उघरे दिख जाएंगे, जाड़ा हो तो कंबल में ठिठुरे और आजकल बारिश में बरसाती ओढे पूरा कुनबा बूंदों की मार सहता कभी भी देखा जा सकता है।

मराठी मूल और हिंदू जाति की माया। उत्तर प्रदेश से रोजगार की तलाश में आए मुस्लिम बिरादरी के सलीम से प्यार कर बैठी। दो जून की रोटी के जुगाड़ में जुटे सलीम में माया को क्या भा गया ये तो वो आज भी ठीक से समझ नहीं पाई। पूछने पर बस यही कहती है कि “बाबू प्यार तो अंधा होता है...।”

पर माया का प्यार नीम अंधेरी नींद की दुनिया में बुना कोई ख्वाब नहीं था। माया की माने तो उसने जो किया उसकी दुश्वारियों का इल्म भी उसे बखूब था।

बचपन में मां-बाप के गुजर जाने के बाद छह बहनों और तीन बड़े भाइयों के परिवार में वैसे तो माया को खूब प्यार मिला। भाइयों और बड़ी बहनों ने भरसक कोशिश की कि माया को कभी भी मां-बाप की कमी नहीं अखरे। जब भी पिता की याद आई तो बड़े भाई ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी से निभाई, मां की याद ने माया की आंखों का कोर भिगोया तो खारे पानी का बूंद बड़ी बहनों की हथेली पर ही गिरा। लेकिन मां-बाप के प्यार से अछूती रही दिनों दिन बड़ी होती माया धीरे-धीरे इस बड़े परिवांर में खुद को तन्हा महशूस करने लगी। तभी एक दिन सलीम ने उसे अपने आगोश में ले लिया।

परिवार ने माया के इस गैरजातीय रिश्ते का जमकर विरोध किया उन्होंने उसे धमकी भी दी थी कि अगर ये रिश्ता नहीं छूटा तो माया का परिवार से नाता जरूर टूट जाएगा, पर माया को लगा कि बचपन में मां-बाप का प्यार खोने के बाद अब जवानीं में अगर उसने सलीम के बाहों की नर्मियां खोई तो शायद उसका ये जीवन ही व्यर्थ हो जाएगा।

आखिरकार आठ साल पहले माया ने सलीम से शादी का न सिर्फ फैसला किया बल्कि शादी भी कर ली। भाइयों ने माया को घर से निकाल दिया। करीब छह साल तक कभी रेलवे स्टेशन तो कभी फुटपाथ....इस “अंधे प्यार” का आशियाना बनते रहे लेकिन अब माया और सलीम ने एस ब्रिज के एक छोर को मानों अपना मुकम्मल मुकाम बना लिया है।

भाई और भतीजे अब काफी अमीरजादे हो चुके हैं, एक भतीजा तो पुलिस की नौकरी में भी है। कई बार बहन, भाई, भतीजे कार से गुजरते हैं, रफ्तार धीमें करते हैं माया में आस जगती पर तभी उनकी गाड़ी फिर स्पीड पकड़ लेती। वो तो बहुत दिनों के तजुर्बे के बाद माया ने जाना कि इस पुल की बनावट (S) ही कुछ ऐसी है कि लोगों को गाड़ियों की रफ्तार धीमी करनी ही पड़ती है। इसका ताल्लुक माया की ज़िंदगी से बिलकुल नहीं। सच तो ये है कि माया अब हर राहगीरों को बड़ी ही ढिठाई से देखने लगी है।

माया कहती है...
“सभी को एक दिन मरना है....जो कार से चलते हैं.....खूब अच्छा खाते हैं वो अमर तो हो नहीं जाएंगे। एक जनम है उन्हें जो पसंद है वो कर रहे हैं मुझे जो पसंद है वो मैने किया। मुझे कोई दुख नहीं। दुख तो तब होता जब धन दौलत सब कुछ मेरे पास होता फिर भी सलीम की याद सताती रहती...क्या फायदा था ऐसे पैसे का।”

माया को अब किसी से शिकायत नहीं, न तो परिवार से ना ही समाज से। कोई सवालात भी नहीं हैं और ना ही वो समझती है किसी के प्रति अपनी जवाबदेही, सिवाय भगवान के। .........तो फिर अंधा कौन था ? माया का प्यार या उसे न देख पाने वाले लोग ? ये सवाल अब बस हमारे आपके लिए है। माया के लिए ये भी बिलकुल बेमानी…..।

6 comments:

अनिल रघुराज said...

माया के भावसंसार में और गहरे उतरिए। कहानी में अभी बहुत संभावनाएं हैं। यह सच्ची कथा बहुत बड़े सच को बयां करने की सामर्थ्य रखती है।

Udan Tashtari said...

बिल्कुल जी..अनिल जी सहमत हूँ..

Udan Tashtari said...

बिल्कुल जी..अनिल जी सहमत हूँ..

अभिनव आदित्य said...

संदीप भाई, आपकी लेखनी ख़ासकर किस्सागोई हमेशा बेहतर लगती है... पढ़कर अच्छा लगा.

neeraj said...

ab intazar hai to bus kahani ke dusare part ka.......aisa lagta hai abhi kahani ka dusara part aana baaki hai............

Anonymous said...

kahne ki jarurat nahi achha likhte ho...aur tumhe malum hai ki mere jaise ghamandi aadmai ka kisi ke liye ye kehana kya mayne rakhta hai..... haalanki tumhari lekhani ne hamesha mujhe prabhavit kiya hai, par isbar prabhavit kiya tumhari khoji patrakarita ne jisne pul me chipi kahani ka ek dusra hi pahlu khoj nikala.....