Monday 2 June, 2008

भोर...




गीले छाजन से भाप बन उठता
ओस भीगे उपलों का धुआं

हिलोर लेने लगा रात भर शांत रहा
पाकड़ के नीचे का कुआं।

चूं-चूं करती रहट की घिरनी
भरी गागर से गिरी बूंदें खनकतीं।

मुर्गे की बांग के साथ,
आई बछड़े के रंभाने की आवाज़।

आस-पास गूंजने लगा कोरस
जांते में पिसता अनाज।

रात सुनी कहानी की परियां
जो ख्वाबों में थीं बसी,

आसमां में अब तक टंके तारों में
जा छिपीं ।

अलसाई देह ने ली अंगड़ाई

और
भोर हो गई।

3 comments:

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत उम्दा शब्द चित्रण है भोर होने का, बधाई.

Pratyaksha said...

रहट की आवाज़ सुनाई दी ..

Unknown said...

संदीप - देखो ग़नीमत है, कहानी की परियां रात को तो हैं [ :-)] - सस्नेह मनीष