Monday 7 January, 2008

मैं

टुकड़े-टुकड़े
स्याह बादलों सी तैरती
मेरी अंतर्व्यथा की अंधियारी
सिंदूरी सांध्य में फैलती
खामोश राहों की हरियाली
और निढाल सा
'मैं'
तपती गर्मी की रेत सी
बेमानी इच्छाएं
मेरी महत्वाकांक्षाएं
व्यतिक्रम है, बिखराव है
कोई तादात्म नहीं है
मौसम से मेरा
नई हरी कोपलों के बीच
पीत पड़े पत्ते सा
नितांत अकेला
'मैं'
इंतजार में
कब टूट कर गिरता
खुलकर नर्तन करता।