Tuesday 8 January, 2008

धुंध

उठ रहा है धुआं
बादलों की छांव में
है अतीत मेरा भी
एक गांव में
सर्दियों के दिन यहां
हंस रहे नि:अंग तन यहां
जल रहे अलाव थे
भस्म सभी भेद भाव थे
तपी हुई जेठ की दोपहर
भली लगे नीम की छहियां
पके हुए गेंहू थे खेत में
झुनझुने बजा रही अरहरिया
लुटे-लुटे से रह गए
पत्ते कुछ पलाश के
जब बिखर गए
सूखी दिखी टहनियां
जर्जर बाहुपाश
कांपती अंगुलियां
बस धुंध ही धुंध है
कारवें के चिन्ह हैं
वो गांव अब उजड़ गया
स्वन था जो बिखर गया।