Monday 7 January, 2008

मां

आकंठ आशंका से भरी
दिन भर खोई-खोई
सहमी सी डरी
बात-बात पर झुंझलाती
सांझ ढले इतराती, इठलाती
खूब बतियाती
जब बेटी घर आ जाती।
आधी रात को
अचानक चौंक सी जाती
उठती, बटुए के पैसे गिनती
पायल और कंगन
सहेज कर सिरहाने रखती
अलसाई सोई बेटी का
मुंह निहार, माथा चूमती
बेटी के सपने भी खुद बुनती
घोड़े पर राजकुमार की तस्वीर
ज्यों आंखों में बनती
इत्मीनान की नींद
सो जाती है 'मां'
........... भोर होते
दहशतज़दा रहने के लिए।

1 comment:

Unknown said...

आपके अनिल रघुराज के ब्लॉग पर लिखे कमेंट में "ज़्यादा" और "तर" के गैप को पढ़ कर आपके ब्लॉग पर आया - एक के बाद एक सारी कविताएँ पढीं - धीरे धीरे - शब्द परिभाषा भाषा से इतर - स्याह पृष्ठ पर नारंगी अक्षर, बहुत निजी लगे - वर्तमान सीमित न रहेगा - यही कामना है - छुटपन में इलाहाबाद के मम्फोडगंज इलाके में कहीं (हाँ बलरामपुर हॉउस) पहली बार हरसिंगार का पेड़ देखा था उसकी याद ताज़ा करी आपने - बहुत बहुत धन्यवाद इतना अच्छा लिखने का - सारा ब्लॉग बहुत अच्छा लगा (इलाहाबादी चकल्लस छोड़ - जो समझ के बाहर है) - regards मनीष [p.s. आपको पढ़ना जारी रहेगा ]