Saturday, 19 January 2008

संचारित रिश्ता

वह जब हंसती थी
तो लगता था जैसे
आंगन में पसारे सुखवन पर
गौरैया का झुंड टूट पड़ा हो
जाड़े की सुबह की सिहरन में
गुनगुनी धूप थी वह।
सुबह का वक्त हो तो
नास्ता किया
दोपहर हो तो
खाना खाया
और रात में तो
वह एयरटेल की धुन पर
इतनी आत्मीयता परोस जाती
कि ममता भरा स्पर्श भी
कुढ़ कर रह जाए
मेरे लिए तो वादियों से गुजरती
छकपक छई करती रेल थी वह।
सेलफोन की घंटी बजते ही
नास्ते की टेबिल से
छत पर जाने की लिए भागता
मां अकसर आवाज देती
बेटा धीमें, चोट लग जाएगी
जवाब देने की फुरसत
पापा को होती थी...
कहते चोट से डरती हो
फिर तो हच का टावर
गांव में ही लगवा लो।
लेकिन ये था ऐसा रिश्ता
जिसे हर रोज चाहिए था
रिंगटोन का भरोसा
और एक दिन आचानक
गुम हुए मोबाइल के साथ
ये रिश्ता भी खो गया।

1 comment:

Joshim said...

वाह तुम्हारी आशिकी - ख़ास कर
"आंगन में पसारे सुखवन पर
गौरैया का झुंड टूट पड़ा हो" खूब
[इस बार ठीक किए हो कि कमेन्ट ब्लाक नहीं किए हो ] - rgds manish