Thursday, 27 December 2007

ज़िंदगी (माघ मेला इलाहाबाद)

अलाव तापती है ज़िंदगी
कंबल में ठिठुर गई है,
धौंकनी सी हांफती है ज़िंदगी।
रेत पर सूखती अंगिया से,
बिंध गई है व्यभिचारी टकटकी।
दूध के लिए चीख-चिल्ला रही है ज़िंदगी,
विसर्जित अस्थियों को,
अश्रु पिला रही है ज़िंदगी।
माइक पर गूंजती आवाज़ में,
भूले-भटकों को
शिविर में बुला रही है ज़िंदगी,
"राम प्रकाश जी,
मेला क्षेत्र में जहां कहीं भी हैं
तुरंत घर चले आएं,
उनका लड़का खतम हो गया है"
........आस्था ठुकरा रही है ज़िंदगी।

2 comments:

Anonymous said...

aapke is gur se aaj aprichit hua hoon... badhai..!

Anonymous said...

maaf kijiega...
PARICHIT HUA HOON...