बहुत कुछ है भीतर
शब्द, परिभाषा, व्याख्या से इतर,
रुका हुआ सा।
क्या कहें
और आखिर तुम्हीं से क्यों,
हाथों में लिए हाथ
चुप कब-तक रहेंगे यूं,
जानता हूं शब्दों की जालसाजी,
जिसने जैसी चाही
मौन की भी परिभाषा दी,
एक विषंगति है
जैसे निजता हो अधूरी
छपटाहट ऐसी,
जैसे रचना न हुई हो पूरी।
अकुलाहट है उड़ने की,
फैलाते हुए पर
मापना चाहता हूं विस्तार नभ का
बाहें पसार कर।
बहुत कुछ है भीतर
शब्द, परिभाषा, व्याख्या से इतर
रुंधा हुआ सा।
Thursday 27 December, 2007
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