Monday 31 December, 2007

यादें

मां का अंक
वह किलकता बचपन
हमने खोया है
तितली के हों रंग-बिरंगे पंख
या फिर पंखुड़ियों सा हो
कोमल मन
हमने खोया है।
दादी के लोरी की थाती है
चांद सलोना
तुतलाती भाषा में
स्नेह सिखाती नन्हीं बहना
गिल्ली डंडा और लच्चीडानी में
दिनचर्या का ठप होना
माटी में धुरियाया हुआ
सुवासित तन
हमने खोया है।
सपनों में परियों का
खेलों में गुड्डे-गुड़ियों का
रचा-बसा हुआ संसार
बूढ़े बाबा की गीली आंखों में
भावी जीवन का सार
मेंहदी, बेला, रजनीगंधा
मेरे आंगन
हरसिंगार, चंपा और सोनजुही से
महका उपवन
हमने खोया है
था प्रश्नों का अंबार जहां
था गति का ही विस्तार जहां
रूठे तो बहलावे थे
रोने पर था दुलार जहां
स्मृतियों में वो पसरा बचपन
हमने खोया है

1 comment:

Anonymous said...

aapki rachna padhkar bas yahi panktiyan yaad aayi...
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

badhai...
apka hi,
abhinav raj