Sunday, 31 May 2009

मौन


वेदना का वो अस्फुट स्वर

जो भाखा नहीं जाता

फूलती-पिचकती

पेशानी की शिराओं के साथ

मथता रहता है भीतर ही भीतर।

मौन...

अहंकार ओढ़े

अवसाद का ढूहा

जो अव्यक्त रहने की

चुप्पी थामें

बस धसकता रहता

चीख में तब्दील होने तक।

1 comment:

अभिनव आदित्य said...

आपके "मौन" ने कुछ बोलने और लिखने पर विवश कर दिया है. बहुत शानदार पंक्तियाँ हैं... ऐसे ही लिखते रहिए...बहुत-बहुत बधाई...!