Thursday, 25 September 2008

क्या यह प्रेम कविता है....


जब भी बदन में सिहरन हुई
मेरे जिस्म पर
धूप के टुकड़े टांककर वो पूछती
रिश्तों की गुनगुनाहट तुम्हें कैसी लगी....

उम्मीदों, ख्वाहिशों के बोझ से
दुहरा हुआ, तो उसने खुद ही
मुट्ठी में कसी रेत हवाओं के हवाले कर पूछा
क्या अब भी तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं....

हथेली देर तक हवा में यूं ही खुली रही
रेत रिसती रही और मैं निहारता रहा
अब तो बस रेत का आखिरी कण बचा था
जो कभी-कभी प्रकाश में प्रिज्म सा चमक उठता....

ढेरों आयाम देखता, मैं अचानक होश में लौटा
रिसती रेत के साथ रिस जाए रिश्ता
इससे पहले मैने दौड़कर
हथेली को मुट्ठी में भर लिया.....

शब्द गूंगे हो उठे, सवाल थम गए
बंद पलकों और
स्पर्श की आंच में
गिले-शिकवे भाप बन उड़ गए....

आँख खुली तो देखा
सामने पेड़ पर बैठा था एक पंछी
और नीड़ में टांक रहा था
सूखी टहनी....

देखो घर ऐसे बनता है
अब बताओ क्या ये प्रेम कविता है....

5 comments:

manvinder bhimber said...

जब भी बदन में सिहरन हुई
मेरे जिस्म पर
धूप के टुकड़े टांककर वो पूछती
रिश्तों की गुनगुनाहट तुम्हें कैसी लगी....
bahut pyaara anubhaw hai

Anwar Qureshi said...

बहुत खूब ...बहुत ही अच्छा लिखा है आप ने ..बधाई ......

Pankaj said...

EHSAAS KO ALFAZ DENE KA KAMYAB HUNAR...
LAGE RAHO SANDEEP BHAI.

Raj Mishra said...

संदीप जी, बहुत अच्छा लगा, टी वी पत्रकारिता के साथ - साथ अभी तक रचनात्मकता कायम रखना, सचमुच बहुत काबिलेतारीफ है।

Anonymous said...

very very nice congrates... keep it up.......