कल बाहर बहुत ठंडक थी
आंगन में जमकर ओस बरसी
पर कमरे में गुजारी रात
पसीने से तर-ब-तर थी
नीम अंधेरे में डूबे
नींद के आगोश में
मैने ख्वाबों को
मां की आंखों से देखने की
जुर्रत की थी।
सब कुछ सामने था
पर साफ कुछ भी नहीं दिखाई देता
क्या ख्वाबों पर भी जमती है वक्त की गर्द?
ये सोचना भर था कि मां दिख गई
घर के हर साजो-सामान को
कपड़े से साफ करती
दिन भर वो सफाई में ही जुटी रहती।
मां गोधूली से पहले ही
दिया-बाती में जुट जाती
मुझे सनक सी लगती थीं ये बातें
लेकिन आज पसीने से भिगो गईं
चश्में के भीतर से झांकती
मिचमिचाई सी,
मोतियाबिंद वाली दो आंखे।
क्या इन आंखों से
सपने भी धुंधले दिखते हैं?
सच हो न हो
पर सपने में यही बात खटक गई।
Thursday, 28 February 2008
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2 comments:
भई उन आंखों के सपने तो तुम ही हुए - जब तक तुम चमकोगे वहाँ भी चमक रहेगी - है कि नहीं ? - rgds manish - [ हाँ ये बात कचोटती तो है कि जो कर सके कम ]
बेहद छू लेने वाली पंक्तियाँ लिखी हैं सर ......
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