गेहूं के नन्हें-नन्हें पत्तों पर
बिछी ओस की चादर
खेतों के बीच,
गोखुर से बनी लीक
और
कुचली सरसो से आती
तिलहन की महक
गीले तलुए में चिपके खर-पतवार
जेहन में अब-तक रची बसी है
उन सुबहों की ठंडक।
खुरदुरी नीम की छाल
धूल उड़ाता अंधड़
धानी पत्तियां,
बहुएं झाड़ती टहनियां
और
दिशाओं में बौर की महक
कोटर से बाहर झांकते
हरियाले तोते की लाल-लाल चोंच
दिख रही है अभी तलक।
Sunday, 24 February 2008
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4 comments:
क्या कहने बसन्ती रंग के - तोते के आधे खाए अमरुद कहाँ गए ? [ :-)] - मनीष
बढिया शब्द चित्र खीचा ह।अच्छी रचना है।
"gehun ki nannhi-nannhi balion per...." likha jaye to shayad jyada accha lage,....kyon "guru ji". Vaise basanti-faguni libas odhe Dehat ki yaden acchi lagi.
कविता बहुत ही अच्छी लगी संदीप जी, लेकिन कुचले सरसों से आती तिलहन की महक वाली बात समझ में नही आई।
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