इक्का-दुक्का बिरवान
वो भी पात मुरझाए
बांहें फैलाए खड़ा बिजूका
सिर पर मटकी औंधाये
हड़ा हड़ा की आवाजें
फिर भी
खेतों पर पंक्षी मंडराए......
धूल का अंधड़ फांके पेड़
पर टहनी बौराए
चिटक रही है खाल तने की
लाल हुई कोपल मुस्काए.....
तपी दोपहरी में
काल-कलौटी खेलें बच्चे
तन की खाल
छिल-छिल जाए
बूंद को तरसी प्यासी धरती
रीझे मेघ आसमान में
नज़र न आएं.....
तीज-त्यौहार उधारी में बीते
आगे है धन का जोग
पोथी बांच पंडित बतलाए
सुख-दुख का ये ताना-बाना,
सुनकर होरी, धनिया, गोबर
पीले दांत चमकाएं..
.............................................
नोट: काल कलौटी
(बारिश होने के लिए तपी ज़मीं पर
लोटपोट कर खेला जाने वाला बच्चों का खेल)
Tuesday, 29 January 2008
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1 comment:
शुक्रवार की बादरी, रहे सनीचर छाय / कहे घाघ सुन भड्डरी, बिन बरसे नहीं जाय !!!! [(:-)]- मनीष
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