क्या तुमने कभी कोई पौधा रोपा है
उसे एक उम्मीद के साथ खुद सींचा है,
फिर जड़ पकड़ने पर
जब उसमें आई हो नई कोपल,
याद करो......
उस वक्त कैसा लगा है।
और एक दिन
धीरे-धीरे बढ़ते पौधे की
किसी साख पर
इतराती दिख जाए कोई कली,
उसके फूल बनने का बेसब्र इंतजार,
क्या अभी तक जेहन में रचा-बसा है?
गर वो पौधा खुद में छिपाए रहा हो
एक छतनार वृक्ष का अंश
और अचानक उसकी साखों पर
आ बैठें ढेरों चहचहाते पंक्षी
क्या ये संगीत भी कभी सुना है?
और जब...
उसी पेड़ की किसी साख पर,
मुंह में तिनका दबाए, नीड़ बनाने
आ बैठी थी एक मैना,
या फिर....
धूप तापे, नहाए पसीना
किसी राही का,
उस पेड़ की छांव में रहा हो ठिठकना।
बस, मेरे दोस्त बस,
सुकून का महज ये सुख भोग लो,
फिर हक मांगने के लिए भी
हाथों में थमें कोई खंजर,
तो कहना...।
Wednesday 12 March, 2008
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3 comments:
अभिव्यक्ति सुंदर है !
बढ़िया संदीप - बिरवा फूला रहा - कुल्हाड़ी के चलने के पहले - मनीष [ आज ब्लॉग वाणी पर पहुँच ही गए -]
kya baat hai sandeep ji...bahut hi badhiya.n
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